Sunday 28 January 2018

रोशनी का कतरा



मैं तो रोशनी का वो कतरा हु,
जो हर वक्त खुद में खोया होता है,

और सोचता है, जमाने को तेरी जरुरत क्या है,
जहॉ सुरज ने पुरे मंडल को उजाले से भर पाया है,

तेरा न तो खुदका का कोई वजुद है,
और न ही कोई मोल,

एक झोका हवा का काफी है, तुझे मिटाने को,
कोई याद भी नही करता तुझे, और न तेरे अस्तित्व को,

तो तु क्यों जला रहा है युं खूदकों,
बेवक्त, बेवजह, और बेमतलब,

बोला फिर वो बोल उठा, बात जो मतलब की सोचता,
तो वजुद खुदका कब का खोया पाता,

लडाई तो अपनी पहचान बनानी की है,
दो पल की ही क्यों न हो; बस उसे पाने की ख्वाहिश अब भी है...

वक्त भी बितता गया...सुरज था,
उसे भी तो रोज की तरह डुबना ही था !

तब उसे भी फीक्र सताने लगी की,
मेरे बाद कैसे चलेगी; तु यु अंधेरी राहो में ये जिंदगी ?

तभी रोशनी का एक कतरा चमकने लगा,
सुरज की रोशनी को भी अब तो वो जलाने लगा,

अंधेरो का साया पुरा नहीं;
पर मुश्कील रास्तें को वो साफ करने लगा,
जिंदगी की रास्तें और एक बेहतरीन हमदम जो आ गया,

जिसे दिन के उजालों में छोड गए सब बेमतलब समझकर,
रात के अंधेरो में आए सब फिरसे उसी के पास बैठने

साथ तो बस अब उसने ही दिया था....
बिन कहे, बिन मांगे, ना कोई सवाल किये,

बस तुम अपने हाथो से, एक बार उन हवाओ से बचालो,
एहसान नही भुलेगा, सारी अंधेरी रातों में साथ कभी न छोडेगा...

वो इंसान न था, जो फायदा-नुकसान देख कर खुदगर्ज बनता,
वो तो “दिया” था, जो सिर्फ खुद मै जलकर रोशनी देता,

दो पल की पहचान बनाने, दिनभर जलता रहा;
तब जाके रातो में, सबको एहसास हुआ

कोई छोटा या बडा नहीं होता, दिनमे जिसे घृणा से दूर किया,
आखरी पलों में, लो अब उसी के पास खुदको पाया...
- कृष्णा अंकुश खैरे




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